Saturday, March 26, 2011



माँ के साथ कहीं  
से आ रही थी
कुछ दूर चंद लोगों  की
भीड़ लगी थी

लोग घेर के खड़े   थे
गिरी हुई bike को
कुछ सहारा दे रहे थे
दो नौजवानों को

दोनों ही लड़के
गुस्सा रहे थे
अपशब्दों की धाराए     
बहा रहे थे

"किसे सम्मान दे
रहे हैं " सोचा मैंने
और जरा पास गयी
तो देखा मैंने

अगले पहिये के नीचे
दबा हुआ पड़ा था
काला, आवारा
मरियल-सा कुत्ता

सांस बहुत धीरे से
चल रही थी
कराहने की दम भी उसमे
बची नहीं थी

जीभ लटकी दिख रही थी
आँख आधी मुंद गयी थी 
कंकाल-से शरीर से
रुधिर धारा बह रही थी

भीड़ ने हमदर्दी  से
कुसूर उसपे मढ़ दिया
"बीच राह चलता था
बेचारा मर गया "

रुकी नहीं ज्यादा  देर
आगे बढ़ गई मैं
भीड़ में फिर क्या हुआ
जान यह न सकी मैं

थोड़े  ही दिनों बाद
निकली जब उसी जगह से
दुर्गन्ध आई भयानक
वहीँ एक कोने से

कूड़े के साथ पड़ी थी
लाश उस निरीह की
आँखों की जगह गड्ढे थे
पूँछ तक अकड़ गयी थी

सिहरी इक बार मैं
पर सदैव की तरह
रुकी नहीं ज्यादा देर
आगे बढ़ गयी मैं



माँ के साथ कहीं  
से आ रही थी
कुछ दूर चंद लोगों  की
भीड़ लगी थी

लोग घेर के खड़े   थे
गिरी हुई bike को
कुछ सहारा दे रहे थे
दो नौजवानों को

दोनों ही लड़के
गुस्सा रहे थे
अपशब्दों की धाराए     
बहा रहे थे

"किसे सम्मान दे
रहे हैं " सोचा मैंने
और जरा पास गयी
तो देखा मैंने

अगले पहिये के नीचे
दबा हुआ पड़ा था
काला, आवारा
मरियल-सा कुत्ता

सांस बहुत धीरे से
चल रही थी
कराहने की दम भी उसमे
बची नहीं थी

जीभ लटकी दिख रही थी
आँख आधी मुंद गयी थी 
कंकाल-से शरीर से
रुधिर धारा बह रही थी

भीड़ ने हमदर्दी  से
कुसूर उसपे मढ़ दिया
"बीच राह चलता था
बेचारा मर गया "

रुकी नहीं ज्यादा  देर
आगे बढ़ गई मैं
भीड़ में फिर क्या हुआ
जान यह न सकी मैं

थोड़े  ही दिनों बाद
निकली जब उसी जगह से
दुर्गन्ध आई भयानक
वहीँ एक कोने से

कूड़े के साथ पड़ी थी
लाश उस निरीह की
आँखों की जगह गड्ढे थे
पूँछ तक अकड़ गयी थी

सिहरी इक बार मैं
पर सदैव की तरह
रुकी नहीं ज्यादा देर
आगे बढ़ गयी मैं

Wednesday, March 9, 2011

usha






गिर गयी उषा के हाथ से
सिन्दूर की दानी
और बिखर गयी लाली .
धुंध का लिहाफ ओढ़े
पड़ी हुई वसुंधरा ने
जब ली अंगड़ाई, तो
चिड़ियाँ भी चह्चहायीं .
सुनकर खगों का शोर
दिनकर ने भी आँखें मलीं
और नींद भरा, लाल मुख 
लेकर उपस्थित हो गए .
उषा ने लाली समेटकर
चन्दन का तिलक सूर्य के
माथे पर लगा दिया,
और फिर वो कहाँ लोप हुई
सूरज ने ध्यान ना दिया .
और कुछ ही देर में
नीले समंदर के बीच
दीख पड़ा सबको
इक आग का गोला .
उस आग ने सबको तपाया
पर आई फिर संध्या की छाया.
संध्या जो आई तो
अनल कुछ शांत हो गया,
लपटें चली गयीं
बचा बस लाल कोयला .
इतने में आ पहुंची निशा,
माथे पे चाँद की बिंदिया ,
और काले आँचल में उसके
तारों की अबरक चमके ,
कुछ को सुलाया
कुछ को जगाया निशा ने .

कई प्रहर वह ठहरी रही
पर अंततः थक ही गयी,
और लो !
फिर आ पहुंची उषा.