Thursday, February 3, 2011

रात


 थोड़ी सी रात रक्खी है सिरहाने
थोड़ी सी नींद रक्खी है सिरहाने
अभी न ही रात को और न ही नींद को
आँखों में भरने का मन है
अभी कुछ देर और अँधेरा ताकने का मन है |
रात का सन्नाटा कानों में गूंजता है
साँसों का आना-जाना भी शोर सा लगता है |
कमरे के अंधकार में
कहीं दरारों से झांकती है चांदनी
और उन्हीं रास्तों से प्रवेश पाती है
ठंडी-ठंडी हवा भी |
आवाज़ देता रहता
दीवार पर लटका समय
कानों में पड़ती रहती
झींगुर की झिन्झिन हर समय |
बीच-बीच में दूर से
न जाने किस ओर से
आती है ऐसी ध्वनि
की कोइ गाडी जाए अनमनी |
टिप-टिप सुनायी देती है
रिसती हुई धाराओं की |
हूकें सुनायी देतीं हैं,
जागे हुए चौपायों की  |
साँसें थीं गहरी हो चुकी
छायाएं गहरी हो चलीं
सुर-ताल सरे रात के
सुनायी देने कम लगे
निद्रा वहीं थी सामने
मनो लगाने को गले
पल-पल अँधेरा देखती
आँखें थी मेरी थक गयीं
पलकों की चिक भी गिर गयी
और नींद ने कब गोद में सिर रख लिया मालूम नहीं |


1 comment:

  1. ISHA JI KINULI KE SAATH KAM KHELEY, EVAM SHEEGHR HI NAVEEN ABHIVYAKTI KAREY........

    MAHAN DAYA HOGI...............

    PRASHANSHAK.........

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